‘मोहन-नवकेतन में कभी सीटियों की गुंज में गुम हो जाती थी फिल्म की आवाजें ‘

‘मल्टीप्लेक्स सिनेमा हॉल होने की जग रही उम्मीदें ‘


आज नेशनल सिनेमा डे (#NationalCinemaDay) है। सिनेमा अथार्त मनोरंजन का साधन। एक समय था जब टेलिविजन के सीमित प्रसार थे। गिने चुने घरों में ब्लैक-इन-ह्वाइट टीवी होता था। एक दशक पूर्व तक एंड्रॉयड फोन व इंटरनेट की प्रचलन भी कम। दो दशक पूर्व तो इंटरनेट सेवा महंगे होने के कारण इसके भी दायरे सीमित थे। यूं कह लें नगण्य के बराबर। ऐसे में पारंपरिक कला विधाओं के साथ-साथ फिल्मों का प्रचलन आज के दौर से भी अधिक थे। युवा वर्ग के लिए सिनेमाघर ही मनोरंजन के बेहतर साधन/संसाधन थे। सिनेमाघर सिंगल स्क्रीन के, लेकिन काफी लोकप्रिय थे। पलामू की ओर ध्यान आकृष्ट कराना चाहुंगा। पलामू में मोहन सिनेमा हॉल एवं नवकेतन सिनेमा हॉल काफी लोकप्रिय था। जहां पलामू प्रमंडल ही नहीं, दूसरे जगह से आने वाले लोगों के लिए भी यहां फिल्में देखना उनके पसंद में शामिल था। दो छोटे स्क्रीन के सिनेमा हॉल भी बाद में खुले और बंद हो गए। बंद होने का कारण उनका कुछ अपना निजी कारण रहा होगा, लेकिन मनोरंजन करने वालों के लिए शहर में ये भी जगह थे। छोटे पर्दे के हॉल राजधानी था। छोटे पर्दे के एक हॉल का संचालन पिंक पैलेस के ऊपरी तल पर होता था। इसे मिनी हॉल के नाम से जाना जाता था।

आज पलामू के सिनेमा हॉल अतीत की यादों में सिमट गया है। यहां न तो छोटे पर्दे के सिनेमा हॉल हैं और न ही सिंगल स्क्रीन के कोई और हॉल। पलामू के लिए चर्चित मोहन सिनेमा हॉल एवं नवकेतन भी बंद हैं। इन सिनेमा हॉल के पर्दे से लोगों की आज भी खुशनुमा यादें जुड़ी है। इन हॉलों में फिल्में देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ती थी। चर्चित मोहन सिनेमा की बात करें तो यहां चार शो में फिल्में चलती थी और दर्शकों की संख्या में भी कमी नहीं। 11 से 2/ 2 से 5/ 5 से 8 और 8 से 11 बजे तक शो चलता था। कई फिल्में चारों शो में भी हाउसफुल। टिकट काउंटर पर तो ऐसी भीड़ की, कभी पुलिस को लाठियां भांजनी पड़ती, तो कभी टिकट कटाने को लेकर युवाओं में मारपीट। टिकट लेने के लिए युवा ब्रिगेड के बीच बेल्ट भी चलते थे। कॉलर धर-पकड़ के साथ-साथ तनातनी भी कम नहीं। टिकट पहले लेने के लिए कई हथकंडे अपनाये जाते थे। गुटबाजी और धाक जमाने (मजबूती) के साथ जबरदस्ती पहले टिकट लेने की होड़ लगी रहती, ताकि सीट फूल न हो जाए। ज्यादा रईस व पैसेवाले व्यक्ति तो बालकॉनी के टिकट ही खरीदते थे। कई तो ब्लैक में टिकट खरीदकर फिल्म देखने को मजबूर होते थे। हॉल के अंदर जब फिल्में शुरू होती थी, तो सीटियों की गूंज भी कम नहीं। हॉल के अंदर दर्शक चूपचाप फिल्म देखकर निकलें यह तो असंभव था। कभी-कभी तो सीटियों और दर्शकों की चिल्लाने की आवाज में फिल्म की आवाज़ भी कम जान पड़ती थी, लेकिन समय के साथ सबकुछ बदला।
पिछले पांच वर्षों में ये सभी नकारात्मक बातें समाप्त हुई। सिनेमा हॉल संचालकों की हमेशा सकारात्मक सोच रही थी कि लोगों को शांतिपूर्ण मनोरंजन कयाया जाए, लेकिन बाहरी वातावरण में अलग चलता था। समय के साथ साथ सिनेमा के शौकीन युवा दर्शकों में भी कॉमन सेंस का संचार हुआ और दर्शकों में शांति व्यवस्था कायम हुई। हॉल में अच्छी फिल्में, सुपरहिट फिल्में महीनों चलते थे। इन सबों के बीच सिनेमा हॉल के टीकट सस्ते होते थे। टिकट काउंटर पर ही टिकट दर भी लिखे होते थे। आज के दौर में एक भी सिनेमा हॉल नहीं है। हालांकि मोहन सिनेमा हॉल वाले स्थान पर एक मल्टीप्लेक्स सिनेमा हॉल बनाए जाने की चर्चा खास है। काम भी जोर-जोर से हो रहा है, लेकिन मल्टीप्लेक्स सिनेमा हॉल ही बनेगा, यह अबतक स्पष्ट नहीं हो सका है।

सिनेमा हॉल किस कारण से दफन हो गये, यह तो पता नहीं, लेकिन माना जा रहा है कि सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल के प्रति दर्शकों की उदासीन रवैया शामिल रहा। बदलते दौर में मल्टीप्लेक्स का जमाना आ गया। वहीं हर हाथ में एंड्रॉयड फोन और इंटरनेट की सुविधा बढ़ने से मनोरंजन के कई साधन हर पल संभव हो पा रहा है। शायद इसीलिए भी मल्टीप्लेक्स की मांग दर्शकों में है।

मोहन सिनेमा हॉल में पहली बार मैं विद्यार्थी जीवन में “हम आपके हैं कौन” पारिवारिक फिल्म देखा था। यह करीब १९९५-९६ का काल रहा था।

विजय ठाकुर, सहायक जन सम्पर्क अधिकारी

नोट यह मेरे अपने विचार और व्यक्तिगत अनुभव है।

फोटो: Google से ली गई है।

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