कभी यादों के समंदर में गोता लगाइए… कभी कलकल बहती नदी में
तैरने का आनंद लीजिए। बस पर बैठने का दिल हो तो वह भी पूरा
कर लीजिए। यह सब कभी डालटनगंज रहे मेदिनीनगर में कोयल
नदी में आज भी संभव है और 41 साल पहले भी संभव था। नदी
बरसात में समंदर का रूप ले लेती हैं…किनारा मुंबई की चौपाटी
जैसा हो जाता है। पानी थोड़ा कम हो जाए तो तैरने का मजा भी
मिल जाता है। ये दोनों पहले और आज भी होता है। अंतर आया है
तो बस में बैठने में। आज हम बस पर बैठ कर पुल के ऊपर से
सरसराते हुए शाहपुर होते हुए गढ़वा चले जाते हैं। 1981 से पहले
ऐसा नहीं था। तब बस नदी के बीच से चलती थी, हिलती-डुलती
लगभग बलखाती सी।
उस समय को कुछ ऐसे याद कीजिए। अगर आप उम्र का अर्द्धशतक
लगा चुके हैं और कोयल की धारा को बचपन से निहारते रहें हों तो
एक बार फिर बच्चा होने का समय आ गया है। आइए, लौटते हैं
नवंबर 1981 से पहले के डालटनगंज में और चलते हैं गढ़वा। जाएंगे
कैसे…अरे बस से और क्या। तब गिनती की बसें चलती थीं। कोयल
पर पुल नहीं बंधा था लेकिन बस नदी के पानी में चलती हुई उस पार
जाती थी और गढ़वा पहुंचती थी। जिन्हें शाहपुर, चैनपुर, पनेरीबांध के
अलावा आसपास के गांवों में जाना होता था उनके लिए नाव तैयार
मिलती थी।
अचानक इस बस यात्रा की चर्चा क्यों तो इसका जवाब भी देता हूं।
सतीश सुमन मेरे लिए छोटे भाई की तरह है और जिले के वरिष्ठ
पत्रकार हैं। अचानक उनके व्हाट्सएप से एक तस्वीर आती है। यह
तस्वीर बरसों से परत लग चुकी स्मृतियों को कुरेद कर ताजा कर देती
है। (यह वाकया पिछले साल का है।)
दुर्गा बाड़ी और गिरिवर स्कूल के बीच से कोयल में उतरने का रास्ता
था। जब नदी में ठेहुना भर या उसके आसपास पानी हो जाता था तो
इस रास्ते की झाड़ियों को साफ कर यहां से बस के उतरने लायक
बनाया जाता था। इसके बाद पानी में बोल्डर जमाए जाते, फिर उस
पर बांस की टाटी और संभवतः पुटुस बिछाया जाता। इसके किनारों
को भी बड़े पत्थरों से दबाया जाता था। इसके बाद तैयार हो जाती थी
पानी के अंदर सड़क और इसपर चलने लगते थे बस, ट्रक, जीप, कार
और रिक्शा। हालांकि इनकी संख्या अंगुलियों पर गिनने लायक होती
थी।
इन सवारियों में से सिर्फ रिक्शा पर बैठ कर मैंने नदी पार की है।
डालटनगंज के तरफ से शुरू हुआ यह रास्ता शिवाला घाट के सामने
शाहपुर से जुड़ता था। यानी सीधा न होकर थोड़ा घुमावदार। बस
यहां से ऊपर जाकर दाएं मुड़ती और हमलोग रिक्शा से कोई एक
किलोमीटर जाने के बाद दाएं मुड़कर पनेरीबांध पहुंचते थे।
अब थोड़ी यादें। मां कहती है, ‘तब बहुत दुख से नदी पार करते थे।
उधर से डालटनगंज आते समय रिक्शा नहीं मिलता था, पूरा रास्ता
पैदल। कभी नदी के पानी से कपड़े भींगते तो कभी गर्मी में बालू से
पैर जलने लगता। बरसात में नाव से पार करने में मुझे नहीं बहुत
लोगों को डर लगता था। पुल बनने से सुख तो बहुत हुआ पर
पनेरीबांध जाना कम हो गया। ‘
अब पापा की सुनिए, ‘पहले पनेरीबांध से बरसात में डालटनगंज
आना मतलब दो घंटे का समय अब बीस मिनट भी नहीं लगता। पहले
रात में आने पर टार्च की रोशनी में सांप-बिच्छू दिख जाते थे और
इनसे बचाव हो जाता था। अब रात में गाड़ियों की हेडलाइट में
आधुनिक सांप-बिच्छू नहीं दिखते, इनसे भय बना रहता है।’
अंत में हम दोनों भाइयों का अनुभव। पापा बताते थे कि कैसे वह
अपने साथियों के साथ नाव से कूद जाते फिर तैरते हुए नदी पार।
एक बार हम दोनों भाइयों ने भी यही प्रयोग किया। प्रयोग तो सफल
रहा पर जान सांसत में पड़ गई। फिर इसे न दोहराने की कसम। अब
इच्छा होती है नदी में तैरने की…नहाने की… कसम टूटने का भी डर
नहीं, क्योंकि कोयल पर पुल बन चुका है और नाव नहीं चलती।
रविशंकर पाडेय बड़े भाई की तरह हैं। उनकी यादें, ‘मैं बतला दूं कि
उस बस का नाम ‘चंद्रा मोटर’ था। बस कच्ची सड़क से ओड़नार,
बरांव, बनपुरवा होते गढ़वा जाती थी। बस मे ठेसम-ठेस लोग लदे
होते। तब बैलगाड़ी भी एक उपयोगी सवारी थी। अमूमन बीमार लोग
नदी पार से बैलगाड़ी पर लद कर इलाज कराने ‘ललटेनगंज’ आते थे।
गांव-गिरांव मे डालटनगंज ललटेनगंज के नाम से ही सुप्रसिद्ध था।’
किशोर कुमार शर्मा भी बड़े भाई जैसे ही हैं। उनके जेहन की यादें,
‘नदी में रास्ता बनाने वालों को घटवार कहते थे।1974 में बीसीसीएल
की गोरे मेगनेटाइट माइंस चालू हुई थी जो बाद में सीसीएल में चली
गई थी। श्रीवास्तव जी जीएम थे और राजा रूंगटा के बड़े भाई मुन्ना
(मिठू) रूंगटा जी का काफी सहयोग रहता था। घटवारों से तालमेल
बिठा कर ट्रक न फंसे इसका निजी अनुभव रहा है। आज घटवारों की
सूरत भी याद आई।’
अब थोड़ा ललन कुमार सिन्हा भैया का स्मरण, ‘ये सब मैने भी देखा
और महसूस किया है। रास्ता बनाने का यही तरीका था लेकिन इसे
रूंगटा कंपंनी बनाती थी। उस समय लौह अयस्क का चैनपुर से आगे
बड़ा खदान था। काफी ट्रकों से माल ढुलाई होता था और कंपनी का
ऑफिस डालटनगंज में गुमटी के पास था।’
यह तस्वीर किसकी ली हुई है, पता नहीं। इसके अनाम छायाकार को
धन्यवाद। वैसे, शहर में पुराना गढ़वा रोड भी है, जो कुंड मुहल्ला में
है।
प्रभात मिश्रा