“मैं मश्त-हसन नहीं हूं, मैं मश्त-हसन की गाय हूं!”

एकबारगी विश्वास करना कठिन है कि ईरान में वर्ष 1969 में एक ऐसी फ़िल्म बनाई गई थी, जिसमें एक देहाती अपनी गाय से बेइंतहा प्यार करता है, और उसकी अकाल-मृत्यु हो जाने पर उसके वियोग में प्राण गंवा देता है। किंतु यह सच है। इस फ़िल्म का नाम है- “गाव।” ग़ुलाम-हुसैन सईदी की कहानी पर आधारित यह फ़िल्म दारिउश मेहरजुई ने निर्देशित की थी और फ़िल्म में मुख्य भूमिका इज़ातोल्ला इंतेज़ामी ने निभाई थी।

फ़िल्म की कहानी कुछ इस प्रकार है। ईरान के एक देहात में एक मश्त-हसन ही है, जिसके पास गाय है। पूरे गांव को इसी गाय से दूध मिलता है। मश्त-हसन की एक बीवी है, लेकिन उसके कोई बच्चा नहीं है। वह अपनी गाय को दुनिया में सबसे ज़्यादा प्यार करता है। वह बड़े स्नेह से उसे पोखर में नहलाता है, उसे अपने हाथों से चारा खिलाता है, शहर से उसके लिए घंटियां ख़रीदकर लाता है। वह किसी और को अपनी गाय को हाथ लगाने नहीं देता। जब ख़बर मिलती है कि आस-पड़ोस में डाकुओं का गिरोह सक्रिय हो गया है और वे पशुओं को चुराकर ले जा रहे हैं तो अपनी गाय को खोने के डर से वह उसके बाड़े में ही सोने लगता है।

एक बार मश्त-हसन को किसी काम से शहर जाना होता है। इधर गांव में अनहोनी घटित हो जाती है। मश्त-हसन की गाय की अज्ञात परिस्थितियों में मृत्यु हो जाती है। उसकी बीवी रोना-पीटना शुरू कर देती है। लोग एकजुट होते हैं। मश्त-हसन लौटेगा तो हम उसे क्या बताएंगे, यह खुसरपुसुर होने लगती है। तब सब देहाती मिलकर गाय को एक कुंए में दफ़ना देते हैं और यह निर्णय लेते हैं कि मश्त-हसन को बतलाएंगे कि उसकी गाय बाड़े से फ़रार हो गई है और देहाती उसकी खोज में जंगल गए हैं।

मश्त-हसन लौटता है तो अपनी प्यारी गाय को बाड़े में नहीं पाकर बदहवास हो जाता है। वो देहातियों की कहानी पर विश्वास नहीं करता। वो कहता है, मेरी गाय कभी मुझे छोड़कर ऐसे जा नहीं सकती। उसकी मानसिक दशा इतनी व्यग्र हो जाती है कि वह स्वयं को अपनी गाय समझने लगता है। वह गाय के बाड़े में रहने लगता है और गाय का चारा ही खाता है। गाय ही की तरह बां-बां की पुकार लगाता है और दीवारों से सिर भिड़ाता है।

फ़िल्म का सबसे मार्मिक दृश्य अंत में आता है, जब गांव के लोग मश्त-हसन का दिमाग़ी इलाज कराने के लिए उसे रस्सियों से बांधकर शहर ले जा रहे होते हैं। रास्ते में एक टीले पर जाकर वह आगे बढ़ने से इनकार कर देता है। बारिश हो रही होती है। इस मुसीबत से तंग आकर गांव का एक व्यक्ति उसे मवेशियों की तरह छड़ी से पीटने लगता है। वह ग़ुस्से में मश्त-हसन से कहता है- “जानवर कहीं का!” मश्त-हसन को यह सुनकर जैसे सुख मिलता है। उसे लगता है कि अब जाकर वह अपनी प्रिय गाय के साथ पूरी तरह एकाकार हो गया है। वह रस्सी छुड़ाकर दौड़ लगाता है और एक पोखर में कूदकर जान दे देता है।

यह फ़िल्म जब मैंने देखी तो सन्न रह गया। चेतना की किस दशा से यह सम्भव हुआ होगा, इस पर देर तक सोचता रहा। आख़िर यह एक व्यक्ति का आकस्मिक कृतित्व नहीं था, इसके निर्माण की प्रक्रिया में अनेक लोग सम्मिलित थे। अगर फ़िल्म की वस्तुनिष्ठ व्याख्या करें तो आप कह सकते हैं कि चिकित्सा-विज्ञान की एक शाखा का नाम है बोनथ्रोपी, जिसमें मनुष्य स्वयं को मवेशी समझने लगता है। ग्यारहवीं सदी में फ़ारस में मज्द-उद-दवला नाम का एक बुयिद शहज़ादा हुआ था, जो स्वयं को गाय समझता था। बाद में उसका उपचार किया गया। बहुत सम्भव है कि यह फ़िल्म उसी से प्रेरित हो।

किंतु एक अधिक संवेदनशील विश्लेषण हमें इन सम्भावनाओं को रद्द करने को बाध्य करता है। दारिउश मेहरजुई की यह फ़िल्म किसी मनोरोगी का वृत्तांत नहीं है। यह एक ऐसे देहाती की कहानी है, जो अपने गोवंश से अपनी संतानों की तरह अनुराग रखता है, और उसके बिना अपने जीवन की कल्पना नहीं कर सकता। जब मैं इस फ़िल्म के पश्चिमी समालोचकों द्वारा किए गए रिव्यू देखता हूं तो पाता हूं कि वो इसके अंतर्भाव को बूझ नहीं पा रहे हैं। पश्चिम में किसी के लिए भी यह समझ सकना कठिन है कि भला कोई अपनी गाय को इस तरह कैसे प्यार कर सकता है। कोई भी भारतीय किसान इस बात को उनसे कहीं बेहतर ढंग से समझ सकता है। किंतु मेरे लिए बेबूझ पहेली तो यही है कि यह फ़िल्म भारत में नहीं ईरान में बनाई गई है।

तब मैं सोचने को विवश हो जाता हूं कि मनुष्यता आख़िर एक इतना गहरा रहस्य है कि उसकी व्याख्या कभी भी सरल परिभाषाओं से नहीं की जा सकती।

ईरान की तत्कालीन शाह पहलवी हुकूमत ने इस फ़िल्म पर पाबंदी लगा दी थी। वो दुनिया के सामने अपना विकसित चेहरा रखना चाहती थी और उसे लगता था कि गाय की तरह चारा चरने वाले देहाती की यह कहानी उन्हें पिछड़ा साबित करती है। किंतु फ़िल्म-तस्करों की कृपा से यह यूरोप पहुंची और विभिन्न फ़िल्म-समारोहों में दिखाई गई। वेनिस फ़िल्म समारोह में इसने प्रतिष्ठित फ़िप्रेस्ची पुरस्कार जीता। शिकागो और बर्लिन फ़िल्म समारोहों में भी यह पुरस्कृत हुई। यह पहली बार नहीं था, जब किसी फ़िल्म पर उसके ही देश के लोग उदासीन रहे हों और दुनिया ने उसे सिर-आंखों पर बैठाया हो। सत्यजित राय की “पथेर पांचाली” से लेकर अंद्रेइ तारकोव्स्की की “अंद्रेइ रूब्ल्योफ़” तक- सभी की यही कहानी रही है।

दारिउश मेहरजुई की इस फ़िल्म ने ईरानी सिनेमा में एक नई धारा का सूत्रपात किया था। जो लोग सिनेमा की दुनिया से सरोकार रखते हैं, वे जानते हैं कि आज की तारीख़ में ईरानी सिनेमा की क्या हैसियत है। कोमल, सजल और गहरी मानवीय भावनाओं को व्यक्त करने वाला जैसा एशियाई सिनेमा भारत में बनना चाहिए था किंतु समांतर सिनेमा के तमाम आत्मसजग सामाजिक यथार्थवाद के बावजूद नहीं बनाया जा सका, वह ईरान में बनाया गया है और हाजिर दारिउश, अब्बास कियारोस्तामी, मोहसिन मख़मलबाफ़, माजिद माजिदी, जफ़र पनाही, असग़र फ़रहदी, बहमान घोबादी जैसे फ़िल्मकारों का कृतित्व इसका प्रमाण है। मैं कभी समझ नहीं सका कि जिस क्रूरता के लिए इस्लाम दुनिया में कुख्यात है, उसके हृदयस्थल से ऐसा कोमल सिनेमा भला कैसे सम्भव हुआ है।

क्या इसे अरब-फ़ारस द्वैत और प्रकारांतर से सुन्नी-शिया विभेद की तरह देखा जाए? फ़ारस ने हमेशा से ही स्वयं को अरब की तुलना में अधिक आधुनिक, प्रगतिशील और सुसंस्कृत माना है। दारिउश मेहरजुई की इस फ़िल्म के रिलीज़ के दस साल बाद ईरान में क्रांति हुई थी और अयातोल्ला ख़ोमैनी के नेतृत्व में वहां शिया इस्लामिक रिपब्लिक की स्थापना की गई थी। पूर्ववर्ती पहलवी हुक़ूमत के उलट अयातोल्ला ख़ोमैनी को दारिउश मेहरजुई की यह फ़िल्म बेहद पसंद थी। थोड़ी और छानबीन करने पर मालूम होता है कि ईरान में गोक़शी पर पाबंदी लगाई गई थी, और शायद अभी भी वहां यह प्रभावी है। इंडो-इरानियन और वेद-अवेस्ता सम्बंध तब ज़ेहन में गूंज जाते हैं। ईरान शब्द की उत्पत्ति ही आर्यन से हुई है। अरबी-वहाबी संस्कृति की तुलना में यह फ़ारसी-संस्कृति भारत के अधिक निकट रही है। तब मैं सोचने लगता हूं कि एक गाय के वियोग में प्राण गंवा देने वाले देहाती की यह कहानी अगर ईरान में रची गई है, तो यह पूरी तरह से अकारण नहीं हो सकता है।

लहीम-शहीम क़दकाठी वाले इज़ातोल्ला इंतेज़ामी ने इस फ़िल्म में मुख्य भूमिका निभाई है। उनकी पौरुषपूर्ण शख़्सियत के उलट फ़िल्म में उनका अभिनय इतनी स्त्रियोचित कोमलता से भरा हुआ है कि अचरज होता है। उनकी घनेरी मूंछें देखकर एकबारगी फ्रेडरिक नीत्शे की याद आती है, जो तूरीन में एक घोड़े को चाबुक़ से पिटता देखकर उससे लिपटकर रोने लगा था। पशुओं की आंखों में वैसी ही कुछ निर्दोष-कातरता होती है, जो हमारे हृदय को बरबस ही बेध देती है। पशुओं के प्रति करुणा का प्रदर्शन करना वृहत्तर-मनुष्यता का एक बड़ा दायित्व है, इसमें मुझे तो कोई संदेह नहीं। फ्रांत्स काफ़्का का कथा-साहित्य पशुओं के संसार से गहरे लगाव की उत्पत्ति है। मिलान कुन्देरा के एक नॉवल में एक श्वान की मृत्यु का अत्यंत मार्मिक विवरण मिलता है। रॉबेर ब्रेसां की एक फ़िल्म एक गदहे पर केंद्रित है। किंतु एक पशु के प्रति वैसे प्रेम और अनुराग का प्रदर्शन मैंने तो कभी किसी कलाकृति में इससे पहले नहीं देखा था।

और चूंकि वह पशु एक गाय है और वह फ़िल्म ईरान में बनाई गई है, इसलिए मैं हरेक भारतीय से अनुरोध करूंगा कि दारिउश मेहरजुई की यह फ़िल्म “गाव” अवश्य देखें। इति।

सुशोभित

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You missed

डॉ भीमराव अंबेडकर राष्ट्र गौरव अवार्ड – 2025 के लिए झारखंड के डॉ बीरेन्द्र महतो का चयनरांची : झारखंड में लुप्त होती कठपुतली कला व नागपुरी भाषा के संरक्षण व संवर्द्धन के क्षेत्र में सराहनीय योगदान के लिए टीआरएल संकाय, रांची विश्वविद्यालय के नागपुरी विभाग के प्राध्यापक डॉ बीरेन्द्र कुमार महतो का चयन “डॉ भीमराव अंबेडकर राष्ट्र गौरव अवार्ड – 2025” के लिए किया गया है. फतेहाबाद, आगरा में डॉ भीमराव अंबेडकर जयंती के मौके पर 14 अप्रैल को इस सम्मान से डॉ महतो को सम्मानित किया जायेगा.डॉ महतो ने बताया कि बृजलोक साहित्य कला संस्कृति अकादमी के मुख्य अध्यक्ष डॉ मुकेश कुमार ऋषि वर्मा ने पत्र जारी कर यह जानकारी दी है.